पतंग उङाता मैं बचपन मैं,
कभी घर की छत से कभी खुले मैदानो के िबच से,
पतंग मेरी एक रूपय़े की, मंजा और सददी तीन रूपये की, तो िघररी मेरी पाँच रूपये की,
था मैं पेज लड़ाता ना जाने िकस िकस से,
िनले अाकाश के िनचे, िनले-िपले रंग की पतंग कभी गोते खाती कभी इठलाती,
और मैं जमीन पर खड़ा मगन अपने शौक में, यही सोचा करता, काश मैं भी कभी उड़ पाता,
बचपन की मसती,बचपन का बचपना बड़ा याद अाता हैं,
बेिफक्, अाजाद, बेपरवाह था वो बचपन,
भरी दोपहर में घर के दरवाजे को चुपके से धपप करना अाज भी गुदगुदाता हैं,
कयोिक मँा के डर से छुपकर भागना जो होता था।
समय मुठठी में तो िफतुर िदमाग में पनपते रहते,
खाना तो खाना, िकसी का िदमाग खाना िदनच्या का अिभनन अंग हुअा करता था,
दोसतो के साथ सकूल जाना,सायकल की घंटी से सब को अपना लड़कपन का अहसास िदलाना,
अपना िटिफन छोड़ दुसरो का िटिफन झपट कर खा जाना, बड़ा याद अाता हैं,
िटपा-टापी होमव्क की, तो पिरक्षओ(Exam) में जी तोड़ महनत करना,
सकूल की िटचर से मार खाना और बाद में उसे जीभ िचड़ाना,
अकसर पेट पकड़कर माँ से बहाना बनाना और सकूल ना जाना,
वो सड़क िकनारे वाले चाट,गोल गपपे भईया के ठेले के पास खड़ा हो जाना,
वो अजीब-अजीब से शौक पालना, तो िबना पहचान के भी मददत कर देना,
अकसर याद अाता हैं, जब सब एक दुसरे को िसफृ facebook की िदवारों पर ही देख पाते हैं।
वो कोलोनी को िपडडु और िकृकेट के शोर से भर देना,
सब का साथ होना और घर में ही घर-घर खेलना, वो झूठ मुठ का घर बसाना,
घर की पुिलयापर बैठ गपशप करना,
पड़ोस के भईया का सामने वाली दीदी से छुपछुप कर िमलना,
और हमें तैनात करना पहरेदारी के िलए, बड़ा याद आता हैं,
हमारा कल का सपना आज हम रोज जीते हैं,
वातानुकुिलत कारें, िवदेशी कपडे. तनपर और जहां जी चाहे खाना का लुफत उठाना,
अाज तो िटचर की मार भी सही जान पडती हैं,
फाईलो में दफन हम, अकसर दफतर की िखड.की से सड़को पर अपना बचपन खोजते नजर आते हैं।
धुिमल सी वो यादे बचपन की, अकसर उनमें खोने का इंतेजार करती हैं।
संघषृ करते हम िजनदगी की अापा-धापी में, हम सहसा खोए से नजर अा जाते हैं,
बचपन का िसफृ अाज और अभी में जीना बड़ा याद करते हैं,
वो कल की िचंता में अपना खुव नहीं जलाया करता था,
पहले के दूर में अाज हम अपना घोसला बनाए बैठे हैं,
हर िदशा को अपनाते गए, िगरे पर, खडे. होने की कला भी हम िसखते रहें,
हमारे अाज को हम कल में तबदील होते और समय की मृम तथा कठोर सपषृ लेते रहें,
अब उमृ की टेकरी पर खड़े होकर, बचपन का बचपना और अाजादी बड़ा याद करते हैं। "
bachpan ka bachpana, tum aaj bhi mat chhupaana...
ReplyDeletezindagi to bas ek hi baar hai jeena,
so dost mere.., bachpan ke nat-khat pal ko, chahe to aaj bhi jee lena...
issi bahane, kayi aur dilo ko khul ke hasna aa jayega...
unhe bhi apne jeene mei rang bharne ka bahana mil jayega!
wow bhaiya kya baat hai
ReplyDeletemujhe nahi malum tha ki aap likhte bhi ho