"अब मुझे मेरा शहर मेरा दॆश अपिरिचत, अनजाना सा लगता है,
यहाँ का पानी अब मुझे खारा सा लगता है,
यहाँ का पानी अब मुझे खारा सा लगता है,
मुस्कान की चौङाई अब पतझड़ के सुखे पत्तों के समान िसकुड़ सी गई है,
पुँजीवाद का अजगर पहले लोगों की हँसी,
अब िदलो मे बसा अपनापन िनगलता जा रहा है,
िवकास िनरवस्त्र ठंड़ में िठठुरता सा पड़ा है,
करमठ नेता वा अिधकारी या दबा या शहादत वाले एलबम के िहस्से बन जाते है,
और अाड़बरी नेता वा अिधकारी घोटालों या प्रात रूपी तवों पर अपनी मतलबी रोटी सकते रहते है,
त्योहारो के इस देश में िमष्ठानो का अादान प्रदान िवरला ही नजारा है,
घोटाले मच्छरो की संख्या के समान बढ़ते ही जाते है,
बाहर की चाहे, िदमाक की, दोनो ही गंदगी मे पलते है,
अखबार ही अब प़डोिसयो को एक दुसरे की सुख-दुख की कहानी सुनाते है,
देश की बढ़ती अथॆव्यवस्था दुिनया को सोचने पर मजबूर करती है,
वही देश का अाम नागिरक सडको में गड्ड़े,िबजली कटौती और बढ.ती महंगाई से जुजता रहता है,
िशकायत पत्र रद्दी में या अाग तापने के काम अाते है,
रोज की अव्यवस्थाओं में फसा मतदाता ढगा सा महसुस करता है,
ये मजबूर नही पर मजबूर बन जाता है।
देश की एकता में सेंध लगाने अब प्राँतवाद अा गया है,
हमारे कर(tax) का पैसा या नेताओं या अिधकारीयों के िवदेशी खातो में जमा हो जाता है,
या हमारे अपनो की हत्या करने वालों कसाब जैसो को पालने के काम अाता है,
टी.वी चैनल वही िदखाता है जो उसकी टी.अार.पी (TRP) बढ़ाता है,
िकसी की िजन्दगी का माखौल उड़ाना, चौकोर डब्बे में अासान हो जाता है,
सड़को,भवनो का बन्ना अब नेताओं और अधिकारीयों के अागमन पर िनर्भर करता है,
कहकहे अब भाषणो को सुनने से उठते है,
एक प्रथा हम अाज भी िनभाते चले अा रहे है,
पान की िपक से िदवारो को रंगने के बाद हम सरकार को दोषी ठहराते है,
डकैती का नया नाम अब जमाखोरी है,
पहले कम कपड़े, गरीब की तंगहाली िदखाता था,
पर हाय, अाज का कम, कम नहीं, अाधुिनकता िदखलाता है।
िकसान की िचता, अाज का गरमा गरम मुद्दा है,
उसके घर की त्रस्दी, िकसी पाटीॆ का झंडा उँचा करता है,
अाज का भुखा, भुख से कम शोषण से ज्यदा मरता है,
हमारा गुस्सा अच्छे अच्छो की महनत को स्वाह कर देता है,
जब हम हड़ताल और चक्काजाम मे सबकुछ मिटया मे कर देते है,
लाल िफते वाली फाईल हल्की होती है इसिलए उसे पैसों के वजन से भारी करना पड़ती है,
नही तो ये चुहों का भोजन या िदमग को भेंट चढ़ता है,
जादु का खेल नही देखा अापने, तो एक बार सरकारी दफतर में घुसकर देखीए,
अपने जीवनभर की कमाई और भविष्य का चैन कैसे गुम होता है जानीये,
पहले राजाओं, िफर मुगलों, िफर अ़गे्जों ने राज िकया,
अाज अव्यवस्थाए, पुँजीवाद, सत्ता का दुरउपयोग करनो वाले और में रूखापन का गठबंधन हम पर राज करता है।
मैं एक अाम नागिरक, जो एक सरकारी बस में सफर करता हँू,
भीड. की कचपच में खड़ा होकर भी, िलखी अाजादी का जश्न मनाता हँू।"
Change doesn't come from complacency. As long as, we keep accepting in our hearts the imperfections as "OK" to live with.., change will never happen. We cannot change everything, yet we have learnt to give away our efforts, on things, which are in our scope to change... We need to look around with fresh perspective!
ReplyDeletethz suchi...but i tried to express the pain of common man through the droplets of ink...:)
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